श्री गणेशाय नमः
- जयतु संस्कृतम् -
- सिध्धिर्भवती कर्मजा -
- जयतु भारतम् -
परमेश्वर परमात्मा की परम कृपा से विक्रम संवत् 2001 में वैशाखी – 15 पर, जातीय बंधुओं के बौध्धिक व आर्थिक सहयोग से संग्रहित, श्री गिरिधारीलाल साहित्यशास्त्र्ती, साहित्यशास्त्री के संपादकत्व में संकलित, श्री जगन्नाथशास्त्री, काव्यतीर्थ के प्रकाशकत्व से सुगन्धित, श्रीलाड औधिच्य आमेटा ( जातीय इतिहास ) धार्मिक विधियों के विवरणों से संकलितभाग-1 पुष्प स्तबक को श्री कृष्ण पाठक, अध्यक्ष, श्रीलाड औधिच्य आमेटा ब्राह्मण समाज ने गोस्वामी जी श्री 108 श्री सवाई श्री राघवानन्द महाराज श्री एकलिंगधाम (मेवाड़)के पवित्र कर-कमलों द्वारा श्री एकलिंगेश्वर के श्रीचरण-कमलों में समर्पित करवाया था जो प्रसाद के रूप में तत्कालीन विद्वान् जाति बंधुओं के पास आज भी सुरक्षित है|
इस पुस्तक की भूमिका में प्रकाशक का वक्तव्य नामक शीर्षक में प्रकाशक जी ने अपनी भावना प्रकट करते हुए लिखा है कि – प्रस्तुत ग्रंथ में कुछ विषय विवादाग्रस्त हैं, जिनका उत्तम निर्णय सम्भव है कोई परवर्ती भाग्यशाली विद्वान् लिख सके| इन विवादाग्रस्त विषयों में भी 3 विषय प्रधान है| (इनका उल्लेख यथाप्रसंग किया जायेगा)|
इस सन्दर्भ में मैं अपने आपको विद्वान् नहीं मनाता हूँ, किन्तु गुरुओं की प्रसन्नता के लिये श्री गुरुकृपा से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका उपयोग करते हुए तत्रोक्त तीन विषयों के विवाफ़ का समाधान करते हुए अन्य विवादों का भी समाधान करने की इच्छा लेकर यह निबन्ध लिखने का साहस करने जा रहा हूँ, आशा है विद्वान् जाति बंधुओं को इससे सन्तोष प्राप्त होगा|
"बालादपि ग्रहीतव्यं सुभाषितं" के आश्वासन का अवलंबन लेकर यह प्रयत्न प्रस्तुत किया जा रहा है|
यद्यपि पूज्य श्री गिरिधारीलालशास्त्रीजी ने इन विवादों का समाधान अपना एकपक्षीय निर्णय लेते हुए संवत् 2033 में उक्त पुस्तक के द्वितीय प्रकाशन में प्रकाशित किया है जो उनके ज्ञानाधिकार की सीमा के उपयुक्त है |
मैं इन विवादों को श्रद्धा से जोड़ सुलझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ, क्योंकि 'याच्छुद्धः स एव सः' इस श्री भागवत्कृष्ण की उक्ति से धर्म में श्रद्धा ही मूल है| श्रद्धा को अभिव्यक्त करने श्रद्धावान/धार्मिक/विद्वान् निम्नांकित यथानाम तथागुण शास्त्रों का उपयोग करते रहे हैं- तथाहि –
विना व्याकरणेनान्धः बधिरोकोषवर्जितः|
साहित्येन विना पंगुः मूकस्तर्कविवर्जितः ||
बिना व्याकरण अन्ध है, बधिर कोष वर्जित|
साहित्य बिन पंगु यहां है मूक तर्कहीन||
अर्थात् –
1. व्याकरण शास्त्र (उत्पत्ति, विकास, औचित्यपूर्ण वर्गीकरण = इतिहास)
2. कोष शास्त्र (समानार्थक शब्द भण्डार, आत्मीयजन}
3. साहित्य शास्त्र (हितकर कार्यों से कल्पित कथा/परम्परा/भाट/बडवाओं के उल्लेख)
4. तर्क शास्त्र (प्रमाणपूर्वक औचित्यपूर्ण कल्पना)
5. नास्ति निर्मूला प्रसिद्धिः (कोई प्रसिद्धि निर्मूल नहीं होती)
इस तर्क को पूर्व के दोनों विद्वान् स्वीकार करते रहे हैं|
मेरे द्वारा इनका सहयोग लेकर विवादाग्रस्त विषयों का क्रमशः समाधान किया जा रहा है-
विवादाग्रस्त विषय- 1.
आमेटा जाति औदिच्यों से निकली हुई है या लाट देशवासिनी पृथक् जाति है ?
समाधान बिंदु- 1.
1. श्रीलाड:-
सत्यावतारों गुणवान् द्वितीयो बभूव पुत्रः खलु कश्यपस्य|
सत्यश्रियाऽलाडयदित्यतोऽयं श्रीलाडनाम्ना जगति प्रसिद्धः||
2. अम्बाष्ठ:-
(क) अम्बायाः आज्ञां तिष्ठति नातिवर्तते वा|
(ख) अम्बायां नगर्यां तिष्ठति हस्ति आरोहण पालिकायां तिष्ठति वा|
3. आम्बाष्ठाः :-
(क) अम्बाष्ठस्य अपत्यानि पुमांसः|
(ख) अम्बावत्यां नगर्यां तिष्ठन्ति ते जनाः|
4. अम्बेट॒टः :-
(क) 'श्रीश्चते लक्ष्मीश्च' इति मंत्रानुसारम् श्रीरेव अम्बा शब्दवाच्या त्रिगुणात्मिका जगज्जननी शक्तिः शाक्तेषु प्रसिद्धा तथा इडनात् ' अम्बाया ईट्टः अम्बेट्ट इति शब्दों निष्पद्यते|
(ख) अम्बेष्टा :-
अम्बा-इष्टा यस्यसः अम्बेष्टः तस्य इमे अम्बेष्टाः|
(ग) आम्बेट॒टा :-
आम्बेट्टस्य मानस पुत्राः आम्बेट्टाः ये लोकव्यवहृत भाषायां कालान्तरे आमेटाः संजाताः|
5. आमेटा :-
(क) आमिल्य अटन्ति ते जनाः
(ख) आमेटाः आश्रयादयः येषान्ते
(ग) आमेटाः संशयादयः यैस्ते
(घ) आ ईषद॒ मेटाः अभिजनानी येषान्ते
(ङ) आमान्नः इष्टः येषान्ते जनाः आमेष्टाः – आमेटाः |
(च) प्राकृतिक विप्लवेऽपि ये न मृताः अमृताः|
(छ) अमृता नाम देव्या उपासका ते आमृताः – आमेटाः|
प्रमाण –
जिन ऋषियों ने अम्बाजी की उपासना की वे अम्बाजी के बेटे कहलाये| उन्होंने अम्बावती नगरी बसाई जिसका नाम कालान्तर में परिवर्तित हो कर आमेट हो गया|
पं जसराम जी उपाध्याय, राजवैद्य, जोधपुर (राज.)
6. औदिच्या :-
(क) उदीच्यां भवाः उदीच्याः आगताः पूर्वम् ये जनाः|
(ख) औदिच्याः सम्बन्धिनः पूर्वे येषान्ते जनाः|
7. उदीच्या :-
उदीच्यां वासतः पूर्वमुदीच्या अपिते पुनः
8. उम्रेटा :-
उम्रेट वासादुम्रेटा इति ख्याति मवाप्नुवन्|
प्रमाण –
श्रीलाड कश्यप के पुत्र थे| इन्होंने तपोबल से ब्राह्मणों के तेरह गौत्र नियत किये| ये सब श्रीलाड के अनुयायी सिद्धपुर पाटन से रवाना होकर पटनाल (उमरेट) आये और उमरेटा कहलाये| वहाँ से फिर मेवाड़ (आमेट), मारवाड़, मालवा आदि प्रान्तों में फैले| ऐसा मारवाड़ के सजातीय वृद्ध पुरुषों से सुना है|
श्री हरिराम आचार्य, बनेड़ा
9. श्रीलाड प्रसिद्धि :-
श्री विष्णोः ब्रह्माः ब्रह्मणः मरीचिस्तस्मात् सत्यः सोऽयम्|
षण्णवत्यब्दसाहिस्त्री श्रीलाडस्तप आचरत्||
तपःपरप्रभावेण तुल्यतेजा रवेरभूत्|
हरेः प्रसादतो दिव्यं प्रभावमधिजग्मिवान्||
ततश्च सरयूतीरे साकेतस्य समीपतः|
भूयः केनापि कामेन दुश्वरं तप आचरत्||
भास्करोदयवेलायामेकदा स महामनाः|
नित्यकर्माण्यनुष्ठातुं दर्भपुंजं समग्रहीत्||
स तेन दर्भपुञ्जेन दिव्यप्रेरणया मुनिः|
तपः प्रभावतश्चक्रे मुनिःपुत्रांस्त्रयोदश||
तेषां नामानि गोत्राणि विभिन्नानी विधाय सः|
सर्गप्रवृत्तये सर्वनादिशतपतां वरः||
नामानि तेषां गोत्राणां त्रयोदश पुराविदः|
आहुस्तानि निर्दिश्यन्ते तान्निबोध द्विजोत्तम||
शाण्डिल्यःकौण्डिन्यवसिष्ठःकश्यपाश्चान्द्रायणःकौशिकवत्सगौत्तमाः|
गार्ग्योभरद्वाजपराशरौ चालम्बायनश्चांगिरसस्त्रयोदश||
अगमत्पाटणपुरी श्रीलाडो भगवान् प्रभुः|
तत्र सिद्धस्थले सर्वान् वासयामासतान् मुनीन्||
प्रमाण –
1. सिद्धपुर में सरस्वती के तीर पर श्रीलाड का चबूतरा है ऐसा सिद्धपुरवासी वृद्धों से परिचय मिला है|
पं.नन्दकिशोरजी, कुराबड़ – राज.
10. श्रीलाड औदिच्य आमेटा :-
(क) प्रमाण-
राव भाटों से पूछा तो उन्होंने अपनी कपोल कल्पना कर उत्तर दिया कि श्रीलाड जी ने 13 डाभ के पुतले बनाकर अपने मन्त्र बल से उनको जीवित किया था वे ही 13 गोत्र हुए| इससे सन्तुष्ट न होकर मैंने जाति के वृद्ध पुरुषों से पूछा उन्होंने जाति का पूरा नाम श्रीलाड औदिच्य आमेटा बताया| मैंने सोचा इस नाम में श्रीलाड शब्द या तो गुजरात के लाट प्रान्त को बताता है या कोई श्रीलाल नाम का जाति का नेता हो सकता है जो बिगड़ कर श्रीलाड बन गया है| औदिच्य शब्द इसका सम्बन्ध औदिच्य जाति से होना सूचित करता है और आमेटा शब्द इस जाति का वास्तविक नाम बताता है|
इस विचार के आधार पर मैंने सहस्त्र औदिच्य जाति की प्रामाणिक पुस्तक औदिच्य प्रकाश को देखा तो उससे यह संकेत मिला कि इससे लगभग 100-125 छोटी-छोटी ब्राह्मण जातियां बनी है| इसी विश्वास पर मैंने अपनी जाति में प्रचलित 13 गोत्रों को ढूंढा तो 31 गोत्रों में से अपने 13 गोत्र और उनके 15 अवटंक मिल गये|
पूज्य श्री गिरिधारीलाल, साहित्यशास्त्री, उदयपुर
मेवाड़ महामहोपाध्याय|
(श्रीलाड औदिच्य आमेटा जाति का इतिहास, भूमिका, द्वितीय संस्करण, विक्रम संवत् 2033)|
(ख) प्रमाण –
अथाभिध्यायत सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे|
भगदवच्छक्तियुक्तस्य लोकसंतानहेतवः||
मरीचिरत्रयन्गिरसौ पुलस्त्व पुलहः क्रतुः|
भ्रुगुर्वशिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः||
उत्संगान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः|
प्राणाद् वशिष्ठः सञ्जातो भ्रुगुस्त्वचः करात्क्रतुः||
पुलहो नाभितोजज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोऋॅषिः|
अन्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिमॅरिचिर्मनसोऽभवत्||
(भागवतस्कन्ध-3 अध्याय- 12, श्लोक- 21-28)
उपर्युक्त समाधान बिन्दुओं एवं प्रमाणों पर विचार करते हुए यह परिकल्पना की जा सकती है कि भगवान विष्णु के नाभिकमल से पितामह ब्रह्माजी प्रकट हुए उन्होंने अपने दश-प्रधान अंगों से मरीच्यादी दश मानस पुत्र लोक सन्तान हेतु उत्पन्न किये| मरीचि से कश्यप हुए उनके दो पुत्र ऋत और सत्य हुए इनमें ऋत को सविता (सूर्य) कहा जाता है जिनके वैवस्वत (प्रवर्तमान मनु) पुत्र हुआ तथा द्वितीय कश्यप पुत्र सत्यावतार- सत्य जो गुणवान् थे जिन्हें सत्यश्री (विष्णुपत्नी श्रीलक्ष्मी) द्वारा लाड लड़ाया अतः ये श्रीलाड नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुए|
इन्होंने निमिष क्षेत्र नैमिषारण्य में 96 हजार वर्ष पर्यन्त तप कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया| इस तप प्रभाव से वे विष्णु की प्रसन्नता को प्राप्त कर दिव्य प्रभाव को प्राप्त कर रवि के समान तेज वाले हो गये अर्थात् जगत प्रसिद्ध हुए| पुनः इन्होंने किसी काम/इच्छा से साकेत के समीप सरयू के किनारे दुश्वर तप करने का मानस बनाया इस तपोऽनुष्ठान में एक दिन इन महामनस्वी ने नित्य कर्म करने की इच्छा से दर्भपुन्ज अपने हाथ में लिया| उससे विष्णु की दिव्य प्रेरणा व अपने तप के प्रभाव से त्रयोदश (13)मुनि पुत्रों को उत्पन्न किया| इनके गुण-कर्म- स्वभाव के आधार पर इन्होंने विभिन्न नाम व गोत्र देकर इनको सृष्टि रचना के लिये प्रवृत्ति करनेका आदेश दिया| इनके नाम व गोत्र पुराविद/इतिहास एवं पुराणों को जानने वाले इस प्रकार कहते हैं- हे द्विजोत्तम, आप मेरे से जानो| (यहां कौन किसको कह रहा है यह उवाच, इतिश्री, आदि अन्त में नहीं होनेसे अद्यावधि अज्ञात है-यह सत्य है कि यह किसी पुराण का क्षीण अंश है जो स्मृति भ्रंशतावश पूर्ण नहीं किया जा सका)| ये नाम गौत्र है- शाण्डिल्य, कोंडिल्य, वशिष्ठ, कश्यप, चान्द्रायण, कौशिक,वत्स, गौतम, गार्ग्य, भारद्वाज, पाराशर, आलम्बायन एवं आन्गिरस| इन मुनि पुत्रों को अपने साथ ले सरयू किनारे साकेत में अत्यधिक प्रसिद्धि हो जाने से अपनी व अपने आश्रितों की लोकयात्रा व लोकानुग्रह की रक्षा करना उन्हें कठिन लगा क्योंकि सिद्धों को एकान्त प्रिय होता है जो श्रद्धालुजन इन्हें प्रदान करने में असमर्थ रहते हैं ये प्रसिद्ध गुर्जर देश में जहां विष्णु के वराह अवतार में उनके नेत्रों से आंशु के बिन्दु गिरे थे जिनसे एक सरोवर की उत्पत्ति हुई जिसे बिंदु सरोवर कहा जाता है| यहां पूर्वकाल में कर्दम ऋषि ने तप किया था व भगवान कपिल ने भी तप किया था व अपनी मां देवहूति को सांख्य योग (ज्ञानयोग) का उपदेश दिया जिससे उन्हें मोक्ष मिला अतः इस क्षेत्र को कपिल के अपरनाम सिद्ध से सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है|यहां प्रतीची सरस्वती नदी के किनारे श्रीलाड प्रभु ने इन मुनियों को (सिद्धों को) बसाया| अतः यह सिद्धपुर कहा जाने लगा| ये सरयू उदीची से अयोध्या के पास के उत्तर प्रदेश से मिलकर चलते हुए आये| अतः औदिच्य, उदिच्य व आमेटा कहलाये| गुजरात में ही कालान्तर में सिद्धपुर पाटन में वंशवृद्धि न होने से या राष्ट्रविप्लव की आशंका या राजभय से ये उम्रेट (गढ़ पटनाल) में चिरकाल तक रहे अतः उमरेठा कहलाये|
यहां तक की परिकल्पना में सभी सहमत है एवं अन्य समाधान बिन्दु इसी सहमति को आधार मानकर जाति बन्धुओं के गुण, कर्म,स्वभाव को लक्ष्य में रखते हुए परिकल्पित है|
इस परिकल्पना के आधार पर कहा जा सकता है कि श्रीलाड औदिच्य आमेटा एक औदिच्य जाति अवश्य है जो उत्तर दिशा से आयी औदिच्य सहस्त्र जाति से भिन्न होने से स्वतन्त्र जाति है, क्योंकि –
1. पण्डित ज्वालाप्रसादजी कृत जातीय इतिहास, पण्डित छोटालालजी फूलेराकृत जाति निर्णय, ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड, श्रीस्थल-प्रकाश आदि परवर्ती औदिच्य-सहस्त्र विद्वानों द्वारा लिखित ग्रन्थों में श्रीलाड-औदिच्य-आमेटा जाति का नाम नहीं है| किन्तु पूर्ववर्ती औदिच्य प्रकाश में इस जाति का नाम संकेत रूप में संग्रहित है|
2. वर्तमान उपलब्ध पुराणों एवं संहिता-ग्रन्थों में नागर, औदिच्य और आमेटा जातियों के नाम नहीं है| अतः ये जातियां पुराण लेखन के समय के बाद कल्पित हुई जो रावों, बड़वाओं द्वारा बाद मेंअपनी ख्यातों में संग्रहित की गई| यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि भारतीय साहित्य का विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा विनाश करना इतिहास प्रसिद्ध है तथा इस राष्ट्रविप्लवकारी समय में भारतीयों को अपनी जान/प्राण स्वरूप अपने धर्म को बचाना ही अभीष्ठ रहा था| ऐसी अवस्था में वेदों की रक्षा के अलावा ब्राह्मणों ने अन्य साहित्य की परवाह नहीं की| फलतः कितना ही साहित्य नष्ट हो गया| जब पुनः सुराज आया तब इन जातियों ने अपनी उत्पत्तियों के विवरणों को अपने राव बड़वा की ख्यातों में प्रविष्ट करा कर अपने उत्पत्ति विवरणों को सुरक्षित करवा लिये जो आज भी हम वंशधरों को प्राप्त हो रहे हैं जैसा कि हरिरामाचार्य जी द्वारा दिये गये कुछ हस्तलिखित श्लोक जो श्रीलाड औदिच्य आमेटा ब्राह्मण समाज को आज प्रसिद्धि देने में सहयोगी है तथा औदिच्य प्रकाश में इस जाति का नाम मात्र संग्रहित है|
3. इस प्रसिद्धि के कारण महाराणा कुम्भकरण के राज्य समय से पूर्व मेवाड़ में बस जाने के उपरान्त भी इस जाति के सत्यव्रती पूर्व पुरुषों ने पद्म पुराण के पाताल खण्ड में जहाँ एकलिंगनाथ का माहात्म्य वर्णित है वहां आमेटा जाति की उत्पत्ति कथा को प्रविष्ट नहीं किया जबकि अन्य जातियों ने ऐसा किया है|
4. मालवा, मेवाड़ आदि प्रदेशों में जीतनी भी गुजरात से आयी हुई जातियां हैं उनके कुछ हिस्से आज भी गुजरात में हैं जिनके साथ इनका व्यवहार है किन्तु आमेटा जाति का कुछ भी अंश गुजरात में रहा हो और उसके साथ व्यवहार रहा हो ऐसा साबित नहीं होता है| जैसा कि औदिच्य सहस्त्रों का व्यवहार आज भी गुजराती जातिबन्धुओं से है|
5. गणपति, कुलदेवी, भैरव, शिव इनके कुल भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न नाम जैसे औदिच्य सहस्त्रों में प्रसिद्ध है वैसे आमेटाओं में नहीं है|
6. चंद्रात्रेय और आलम्बायन गोत्र औदिच्यों में नहीं है परन्तु आमेटाओं में है|
7. औदिच्य सहस्त्रों की श्रीलाड शाखा देखी सुनी नहीं, न इनकी ख्यातों में आमेटा का नाम है|
8. आमेटा सरयू से सरस्वती पर सिद्धपुर में भी आमिल्य अटन्तः आये तथा यहां से अन्यत्र भी आमिल्य अटन्तः बसे अतः जहां से आये वहां अपना वंशज इन्होंने छोड़ा ही नहीं इस विशेषता से ही ये आमेटा नाम से प्रसिद्ध हुए हैं ऐसा औदिच्यों में नहीं है| एवं श्रीलाड औदिच्य आमेटा यह नाम निश्चित हो जाता है|
अब परिकल्पना को आगे बढ़ातें हैं| अम्बाष्ठाः इस समाधान बिंदु को आधार मानकर चलें तो उम्रेट (गढ़ पटनाल) से भी यह जाति मेवाड़ में प्रस्थान कर गई और वहां अम्बावती नगरी बसा कर रहने लगी यहां पर भी ये अपना सर्वस्व छोड़ आमिल्य अटन्तः आये अतः आमेटा ही कहे जाते रहे|
इस जाति के विद्वान पुरुषों द्वारा अपना इतिहास नहीं लिखा जाना भी इनके इतिहासापन्न होना सिद्ध करता है| पूर्ण इतिहास नहीं लिख पाना इनकी आपन्नावस्था की सूचना देता है तथा किसी पुस्तक का निर्माण नहीं कर पाना इनकी संतोषीवृति व पारम्परिक शास्त्रों में निष्ठा ही व्यक्त करता है| नई पुस्तक नहीं लिखने मात्र से इनकी ब्राह्मणता पर कोई आंच भी नहीं आती| क्योंकि इन्होंने अपने पूर्व पुरुषों के ज्ञान का संरक्षण प्राण-प्रण से करते हुए अपनी धार्मिक पवित्रता का भी संरक्षण अन्य वर्णों के सहयोग से करते हुए आत्म गौरव को आज तक बनाये रखा है तथाहि- राजकोट(सौराष्ट्र) के आसपास 13 गोत्रीय ब्राह्मण समाज का होना भी यही सिद्ध करता है कि श्रीलाड औदिच्य आमेटा एक स्वतन्त्र जाति है|
अम्बावती नगरी से इस जाति के वंशधर अन्यत्र मारवाड़, मालवा, वागड़, कांठल, झालावाड़, ग्वालियर, इन्दौर, धार, देवास आदि दूर-दूर प्रान्तों में बसे हैं, परन्तु आज भी मेवाड़ में इस जाति की जितनी संख्या है उतनी अन्य में नहीं एवं अन्य प्रान्त वालों में से अधिक लोग ये भी स्वीकार करते हैं कि हम पहले मेवाड़ के निवासी थे| यह तथ्य अम्बावती नगरी बसाने की प्रसिद्धि को ही पुष्ट करता है तथा यहां से अम्बावती के उजड़ जाने पर ही यह जाति अपनी पारम्परिक प्रतिग्रह/दान नहीं लेने के व्रत को छोड़ समय को मान देने अपनी लोकयात्रा व अपने द्वारा लोकानुग्रह का निर्वहन करने अन्यत्र प्रस्थापित होती रही है| इस जाति ने भगवान के दर्शनों के लाभ के साथ पारस्परिक झगड़ों को सुधारने के लिये मेवाड़ के पवित्र तीर्थ स्थान श्रीचारभुजा में एक पंचायत स्थापित की जिसकी बैठक प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला एकादशी के उत्सव के अवसर पर वर्ष ए एक बार होती है| यह भी मेवाड़ में आमेट के आसपास बस जाने का सबल प्रमाण है तथा यहां सभी प्रान्तों के आमेटा बंधु आनेका प्रयत्न करते हैं| अतः यह आमेट (अम्बावती नगरी) का अन्तिम सामुदायिक लोकानुग्रही पड़ाव था, यह मानना युक्तिसंगत ही होगा|
आज भी आमेट के आसपास अभ्रक की खदानें हैं इस अभ्रक को रसायनशास्त्र में गोरी अम्बा कहा जाता है|इसके सहयोग से सिद्ध लोग पारद को सिद्ध किया करते थे| इस कारण भी यह स्थान अम्बावती कहा जाता रहा है तथाहि- वीरवास के आसपास कालाखेत आदि स्थान हैं वहां भी प्राचीन अवशेष मिलते हैं| जो किसी नष्ट हुए नगर की पुष्टि करते हैं तथा चंद्रात्रेय शंकरजी की दन्तकथा में भी पाटन नगर के भूमिग्रस्त होने की कथा सुनी जाती रही है इससे यह तो सत्य है कि वर्त्तमान आमेट के आसपास ही यह प्रसिद्ध अम्बावती नगरी बासी हुई थी| इसके नष्ट होने के बाद आमेटों का श्रीलाड होना भी सन्देह के घेरे में समाहित होता गया व यह जाति प्रतिग्रह पर जीने को तैयार हो गई थी|
एवं यह जाति श्रीलाड औदिच्य आमेटा नाम से अच्छी तरह आमिल्य अटन्ती रही तथा अम्बावती में आकर स्थिर हुई यहां भी दैववश अम्बावती के भूमिगत होने से इनका सब कुछ नष्ट हो गया| अतः अन्य जातियों को व्यंग्य करने का अवसर मिल गया| यह व्यंजना भी शुक्र है कि आमेटा शब्द से ही प्रकट होती रही तथाहि- पूर्व में श्रीलाड आमेटा श्री लक्ष्मी मां को अच्छी तरह प्रिय थे किन्तु बाद में आमेटा(जिनका सब कुछ मिट गया) हो गये एवं आमेटा शब्द उनके साथ लगा रहा| तथाहि यह जाति आज भी आमेष्टा- आम- असिद्धान्नम इष्टः येषान्ते, इस पारम्परिक प्रयोजन/अर्थ-वश आमेटा ही है क्योंकि आज भी यह जाति स्वयं-पाकी है| अतः स्वजातीय बंधुओं को छोड़ अन्य यजमानों से आमान्न (पेटिया) लेकर स्वयं पकाकर भोजन करती है यह विशेषता भी आमेटा शब्द को ही प्रकट करती है जो अन्य जाति ब्राह्मणों में नहीं पायी जाती है|
यदि पूज्य श्री गिरधारीलाल जी शास्त्री जी का निर्णय- "सहस्त्र औदिच्य जाति में मिलने वाले 31 गोत्रों में से 13 गोत्र और उन-उन गोत्रों के 15 अवटंको में से 7 अवटंक इस जाति में मिल जाने से राव भाटों की ख्यातों के आधार पर समस्त जाति बन्धुओं की मान्यता के अनुसार और दानपत्रों में लिखे गये जाति के नामों के आधार पर इतना अवश्य अनुमान होता है कि अन्यान्य अनेक छोटी-छोटी जातियों के समान यह जाति भी गुजरात में रहने वाली विशाल औदिच्य ब्राह्मण जाति की एक शाखा है और श्रीलाड जी के नेतृत्व में वि.सं.1300 के आसपास मेवाड़ में आयी है इसी अनुमान से इस जाति का नाम औदिच्य आमेटा होने की सार्थकता है", को शिरोधार्य कर लेते हैं तो निम्नांकित आक्षेप उठते हैं-
1. औदिच्य सहस्त्र जाति का उदय सोलंकी मूलराज के समय में हुआ था जो वि.सं.1051 तक वर्त्तमान था तब फिर 80-90 वर्षों के भीतर ही इतना परिवर्तन कैसे हो गया कि इस जाति के लोग विशाल गुजरात प्रदेश को पर कर मेवाड़ क्षेत्र में आ गये और अपना असली नाम औदिच्य नहीं लिखाकर ताम्र पत्रों में आमेटा नाम का उल्लेख कराने लगे|
2. मारवाड़ से तीन ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जो विक्रम सं. 1137, 1139, 1142 के हैं| इन ताम्रपत्रों में दान लेने वाले ब्राह्मणों के साथ आमेटा शब्द है इससे मालूम होता है कि आमेटा शब्द विक्रम की 12वीं शताब्दी के पूर्व ही इस जाति के लिए प्रसिद्ध हो चूका था इस प्रसिधि की संगति कैसे होगी?
3. श्रीलाड जी ने प्रतीची सरस्वती के किनारे स्थित सिद्धक्षेत्र में इस जाति के मूल पुरुषों को बसाया था न कि आमेट में| यदि ऐसा मानते हैं तो अगमत्पाटनपुरींश्रीलाडोभगवन् प्रभुः| इस स्मृतिशेष प्रसिद्धि की संगति नहीं हो सकेगी|
4. मेवाड़/आमेट से अन्यत्र जाने वाले जाति बंधू अम्बावती नगरी के अस्तित्व एवं उजड़ने की बात करते हैं जो आमेट के आसपास बासी थी इनके बचे लोग व नगरी के कुछ भाग मिट जाने से आमेट कहे जाते रहे हैं| अतः कुछ लोगों की दृष्टि में आमेट अशुभ होने से इसका नाम बदल कर चारभुजा रोड़ रखा गया| यहां 1300 में आकर बसना और अन्य प्रान्तों में 1400 तक फ़ैल जाना असम्भव ही माना जा सकता है|
5. तिल्हभट्ट (त्रिलोचन भट्ट) का मेवाड़ में आना महाराणा कुम्भा के राज्यकाल से पूर्व 1350 के आसपास वर्णित है एवं अन्य जातीय बन्धुओं का मेवाड़ से वि.सं.1200 से पूर्व मारवाड़ तथा अन्यत्र जाना भी वर्णित है| अतः उक्त समय से पूर्व जाति बन्धुओं का मेवाड़ से कहीं अन्यत्रजाकर वापस मेवाड़ आना सिद्ध होता है न कि 1300 में ही आना|
इन आक्षेपों के साथ निम्नांकित प्रसिद्धियों पर ध्यान देना भी समीचीन होगा-
1. सरस्वती नाम की भारतवर्ष में दो नदियां है एक- प्राची सरस्वती एवं दूसरी प्रतीची सरस्वती| इनमें से प्राची सरस्वती जो प्रयाग में गंगा-यमुना को मिलती थी वह श्रीकृष्ण निर्वाण (कलि संवत के प्रथम शतक में आज से 5000 वर्ष पूर्व) के समय में आये विप्लव में विलुप्त हुई थी| अतः इनके किनारे बसे आश्रमवासियों का अन्यत्र जाना व बसना सम्भव है| तथा यह नदी गुजरात से उत्तर दिशा में स्थित थी एवं सिद्धक्षेत्र प्रतीची सरस्वती के किनारे है यहां इनके बसने से यह स्थान सिद्धपुर कहलाया तथा इसके पास बसा पाटण नगर सिद्धपुर पाटन नाम से प्रसिद्ध था| जो कर्णावती (अहमदाबाद) से पूर्व की राजधानी थी|
2. अर्बुदारण्य वाशिष्ठाश्रम शक्तिपीठ अम्बाजी में वशिष्ठ द्वारा अग्निवंशीय क्षत्रियों की उत्पत्ति करना प्रसिद्ध है यदि औदिच्य मूलराज के समय में गुजरात में बसकर स्थिर हुए यह मानते हैं, तो इस प्रसिद्धि का समाधान क्या होगा? इस स्थान की प्रसिद्धि के कारण आदि शंकराचार्य भ्रमण करते हुए यहां आये थे और अम्बाजी की स्तुति अश्वघाटी छन्द में की थी जो प्रसिद्ध है|
3. देशोऽयं भारतवर्षः की प्रसिधि वाले भारतवर्ष की अन्तः एवं बाह्य रक्षा करने से जब सुर्यवंश व चन्द्रवंश के क्षत्रिय असफल होने लगे तब तकालीन अर्बुदाचल स्थित शक्तिपीठ अम्बा आश्रम में प्रधान आचार्य वशिष्ठ जी ने ब्राह्मणों के सहयोग से अम्बाजी के आशीर्वाद से अग्नि को प्रसन्न कर अग्निवंशीय क्षत्रियों की उत्पत्ति कर भारतवर्ष के क्षत्रियों के भुजबल व मनोबल को पुष्ट कर इनके मृत आत्मबल को पुनः जागृत कर इस विशाल देश से हूणों व शकों के साम्राज्य को नष्ट कर भारत को स्वतन्त्र कियां था जिसकी प्रसिद्धि में वि.सं.एवं शकसम्वत का प्रवर्तन तत्कालीन राजाओं ने किया इनकी प्राचीनता इनके गत वर्षों से ही प्रसिद्ध है|
4. यवनों, हूणों एवं शकों के आक्रमणों से पूर्व भारत वर्ष में वर्णाश्रम धर्म (सनातन धर्म) राज्य व्यवस्था में केन्द्रीभूत था इससे पूर्व कलियुगाब्ध शताब्दी 3 में शेष कृष्ण के राज्यकाल में ब्राह्मणों द्वारा समस्त ज्ञान-विज्ञान का संकलन किया गया तथा इसको सुरक्षित रखने इनका संक्षिप्तिकरण सुत्रग्रन्थों में हुआ| यह कार्य विश्वविद्यालयों,विद्यापीठों में लगभग नंदवंश के राज्यकाल वि.पूर्व पञ्चम शताब्दी तक चलता रहा| इस बीच सामान्य जनता राजाओं के स्वार्थ में उलजकर छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो, अपनी पारम्परिक गुण, कर्म, स्वभावजन्य वैश्विकता राष्ट्रीयता खोती जा रही थी| इस कमजोरी का फायदा विदेशी आक्रान्ता उठाने को प्रयत्नरत हो गये इस परिस्थिति का पूर्वाभास ब्राह्मणों को हो चूका था| अतः चाणक्य/विष्णुगुप्त द्वारा तत्कालीन राजाओं को एक राष्ट्र के ध्वज तले एकताबद्ध करने का प्रयत्न किया गया| फलस्वरूप मौर्यवंश की स्थापना हुई- भारत में प्रथम बार किसी अभिषिक्त राजा का उसके राज्यासन पर ही वध किसी क्षत्रिय द्वारा किया गया| अतः इस समय से भारतीय पुराण इतिहासविद कलयुग का प्रारम्भ हैं तथा क्षत्रिय धर्म को लाने के कारण चन्द्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा जाता है| चाणक्य के नेतृत्व में चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार हुआ तथा आसेतु हिमाचलम भारत एकताबद्ध रहे इस हेतु परम्परागत चतुष्कुल गुरु, आचार्य, उपाध्याय, पुरोहित व्यवस्था का ब्राह्मणों ने पुनः प्रचलन किया| तथा ब्राह्मणो वर्णानां गुरुः ब्राह्मणस्य ब्राह्मणोगतिः के अनुसार ब्राह्मणों के नेतृत्व में एक बार पुनः विश्व तो नहीं किन्तु वर्णाश्रम धर्मप्रधान भारतवर्ष ज्ञान-विज्ञान के बल पर एक राष्ट्रीयता को धारण करता गया|
'बहुग्रन्थान् नाध्यवसित्' इस आदेशानुसार तथा '
'अनंतशास्त्रं बहुलाश्वविद्याः अल्पश्वकालो बहुविघ्नता च|
यत् सारभूतं तदुपासनीयं हंसैरथाक्षिरविवाम्बुमध्यात्||' के आधार पर विष्णुगुप्त द्वारा भारतीय समाज की पारम्परिक धर्म, अर्थ और राज्य संस्थाओं को व्यवस्थित व लोकोपयोगी बनाये रखने चाणक्यसूत्रम् (धर्मसूत्र), अर्थशास्त्रम् एवं पञ्चतन्त्रम् नामक तीन सारभूत ग्रन्थों का प्रणयन किया गया| इनमें से पञ्चतन्त्र विश्व की प्रायः सभी प्रसिद्ध भाषाओँ में अनुदित होने से विश्व प्रसिद्धि में प्रथम स्थान पर विभूषित है|
5. जब तक चाणक्य नीति के अनुसार राज्य व्यवस्था को क्षत्रियों ने बनाये रखा तब तक यह देश एकताबद्ध व सुरक्षित रहा| ब्राह्मणों के वर्चस्व को सहन नहीं करने वाले व इनके द्वारा उपेक्षित समाज घटक व ब्राह्मणों के नीतिनिर्देशों की अवहेलना स्वयं ब्राहमणों द्वारा कलि प्रभाव से किये जाने पर इनके शिष्यों क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रादी में तथा वर्णाश्रमेतर जनजाति, जनता में धर्म के नाम पर आडम्बर बढता गया फलस्वरूप बौद्ध धर्म राज्य केन्द्रित हुआ तथा सम्राट अशोक आदि क्षत्रियों ने शस्त्रों के स्थान पर धर्मदण्ड धारण कर लिया| इनके जीवनकाल में ही इनका साम्राज्य साम्प्रदायिक षड्यन्त्रों में फंस समाप्त होता गया फलतः ब्राह्मणों की सनातनीय वर्णाश्रम व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती रही जिसका समायोजन तात्कालिक समाज ने, जातिगत नियत कर्म निश्चित कर, उस पर बल देकर द्विनिष्ट नियमों का निर्माण कर, किया था जिससे सम्राट के अभाव में भी भारतीय समाज अपने धर्म, अर्थ व राज्य को बचाने में सफल रहा| फलतः यवन, हूण, शक भी भारत की सन्तानों में हिलमिलकर अपना विदेशी होना भूल गये थे व इनके विरोध में मुर्धाभिषिक्त राजा व राजन्य के अभाव में राजपुत्रों के वंशानुक्रमण से राजपूत जाति का उदय होना प्रसिद्ध है| कालान्तर में राजपूत राजकेन्द्रित बन गये व ब्राह्मणों की पुनः प्रतिष्ठित सनातनी व्यवस्था उपेक्षित होती रही फलस्वरूप भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंट आपस में ही युद्धरत रहा| इस समय में भारतवर्ष को श्री हर्षवर्द्धन के साम्राज्यत्व में बौद्ध व ब्राह्मण संस्कृति से संरक्षण मिलाता रहा जो इनके साम्राज्य के समाप्त होने तक बना रहा| तथा बौद्ध भिक्षुओं का वर्चस्व बढ़ता रहा इस काल में आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ द्वारा बौद्ध शाक्त तांत्रिक व पाशुपत व जैन मतों को पराजित कर अपने अद्वैत सिद्धान्त की स्थापना कर बचे भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर ब्राह्मणों को व्यवस्थित कर पुनः पुरातन व्यवस्था को बनाये रखने का प्रयत्न किया| जिसके फलस्वरूप 10 विध ब्राह्मणों की दैशिक प्रसिद्धि आज भी ब्राह्मण समाज में समाहित है| जैसा कि प्रसिद्ध है पञ्चगौड़ा-
सास्वताः कान्यकुब्जा, गौड़ा उत्कलमैथिलाः|
पञ्चगौड़ाः समाख्याता विन्ध्योत्तरवासिनः||
पञ्चद्रविडा-
कणॉटकाः च तैलंगाः द्राविडा महाराष्ट्रकाः |
गर्जुराश्चेती पञ्चैव द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे||
6. वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः, ब्राह्मणस्य ब्राह्मणो गतिः, इस प्रसिद्धि के अनुसार भारतीय समाज के चातुर्वर्ण्य का आध्यात्मिक नेतृत्व ब्राह्मण वर्ण अपनी चतुष्कुल व्यवस्था द्वारा करता रहा है तो इसकी अन्तः बाह्य रक्षा क्षत्रिय ब्रह्मज्ञानी के नेतृत्व में करते रहे हैं एवं इसके भरण पोषण, स्वास्थ्य, पर्यावरण, स्वच्छता, सुन्दरता की आपूर्ति ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में व क्षत्रिय के संरक्षण में वैश्य व शुद्र वर्ण करते रहे हैं| इस व्यवस्था के मूल रहस्य वेदों को भूल जाने पर ही विश्वरुपतः भारतवर्ष की विपन्नावस्था हुई है| यह आशय महाराज भर्तृहरि, निम्नांकित श्लोक में व अपनी परोक्षप्रियता को व्यन्जित करते हुए कह रहे हैं-(वि. पूर्व प्रथम शताब्दी)
बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मय दूषिताः |
अज्ञानापहताश्चान्ये जिर्णमंगे सुभाषितम्|| (नीतिशतक -2)
गुरु मत्सरवश तथ्थुले,राजा स्मय दूषित हो फुले
अन्य बन्धु अज्ञान मुए, श्री गुरु वाक् ग्रन्थ सड़े||
7. वैदिक वाङ्गमय ब्राह्मण ग्रन्थों में छन्द की अवधारणा प्रसिद्ध है यह पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है- छादयती अर्थम्-छन्दः जो अर्थ (ज्ञान, इच्छा,क्रिया,कर्म) को अपेक्षित सीमा में बांध लेता है| जैसे कि वैदिक मन्त्रों या कविता में छन्द अक्षरों की संख्या को बांध देते हैं| वैसे ही अग्नि का छन्द गायत्री है पृथ्वी का छन्द भी गायत्री है, अन्तरिक्ष का छन्द त्रिष्टुप है, सूर्य का छन्द बृहती है| इसी प्रकार हमारे सन्तों (ऋषि-मुनि) की प्रसिद्धि के अनुसार ब्राह्मण या ब्रह्मवीर्य की विशेषता गायत्री छन्द है क्षत्रिय या क्षत्रवीर्य की विशेषता त्रिष्टुप छन्द है और वैश्य या विड्वीर्यकी विशेषता जगती छन्द है लेकिन चतुर्थ वर्ण शूद्र की विशेषता वला कोई वीर्य नहीं होता इसलिए उनका कोई छन्द नहीं है इसी कारण ब्राह्मण कहता है- गायत्र्या ब्राह्मणं निरवर्तयत्| त्रैष्टुभा राजानम्| जागता वैश्यम्| न केनापि छन्दसा शूद्रं निरवर्तयत्| (तैत्तिरीय ब्राह्मण)|ब्राह्मणों से अपेक्षा की जाती रही है कि वे स्वयं को बहुत कठोर अनुशासन में रखें और दूसरों के आगे आदर्श जीवनक्रम का उदाहरण प्रस्तुत करें एवं अन्य वर्णों को भी अनुशासित जीवन जीने का विधान स्मृति/धर्मशास्त्रों में प्रसिद्ध है
तथाहि-
ब्राह्मणस्य च देहोयं नोपभोगाय कल्पते|
इह क्लेशाय महते प्रेत्य चानन्त्यसुखाय च|| (महा.)
ब्राह्मण देह यह नहीं साधन है उपभोग|
यहां ज्ञान पाकर वहां परम सुख सदायोग||
8. ॠम्भ्यो जातं वैश्यवर्णमाहूः यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम्|
सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः पूर्वे पुर्वभ्यो व च एतदूचुः|| (तै.ब्रा.)
अग्नि-वायु-सुर्येभ्यश्च दुदोह ऋग्यजुःसामलक्षणम् (मनुस्मृति)
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्रह्ममिदं जगत्|
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्|| (महाभारत)
सारा जगत ही ब्राह्म है ब्रह्म सृष्टि अनुपम|
वर्ण बना वो एक यहां कर्म विशेषतावश||
चातुवर्ण्यंमया सृष्टं गणकर्मविभागशः| (गीता-4/3)
तस्यकर्तारभपि मां विद्वयकरतारमव्ययम्|
गुणकर्म विभाग से चार वर्ण बनाये|
तु जान कर्ता मैं यहां अकर्ता अव्यय एक|| तथाहि-
(1) ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् एकमेव| तदेकं सन्नव्यभवत्| तच्छ्रेयो रुपमत्यसृजत क्षत्रम् यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणि इन्द्रो, वरुणः सोमो, रुद्रः, पर्त्जन्यो, यमो, मृत्युरिशान- इति तस्मातक्षत्रात् परंनास्तिः....सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म| तस्माद् यदि अपि राजा-परमतां गच्छति ब्रह्मै यान्तत् उपनिश्रयति स्वांयोनिम्|
(2) स नैव व्यभवत्| स विशमसृजत् यानि एतानि देवजातानी गणशः आख्यायन्ते वसुवो रुद्राः, आदित्याः विश्व्देवतासो मरुतः इति|
(3) स नैव व्यभवत्| शौद्रं वर्णमसृजत- पूषणम् इवं (पृथिवी) वै पूषा| इयं हीदं सर्वं पुष्यति, यदिदं किञ्|
(4) स नैव व्यभवत्| तच्छ्रेयोरूपमसृजत| धर्मम्| तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्मः| तस्मात् धर्मात् परं नास्ति| अथो बलीयान् बलियांसमासते धर्मेण, यथा राजा एवम्| यो वै स धर्मः, सत्यं वै तत्तस्मात् सत्यं वदन्तमाहुः धर्मं वदति इति| धर्मं वा वदन्तं सत्यं वदति इति| एतद् हि एव एतदुभयं भवति|
(5) तदेतत् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः| तदग्निना एव देवेषु ब्रह्माभवत्| ब्राह्मणो मनुष्येषु| क्षत्रियेण क्षत्रियो, वैश्येन वैश्यः| शुद्रेण शूद्रः| तस्मात् अग्नौ एव देवेषु लोकमिच्छन्ते| ब्राह्मणो मनुष्येषु| एताभ्यामेव रुपाभ्यां ब्रह्माऽभवत्|| (शतपथ ब्राह्मणम्)
इन प्रसिद्धियों के कारण देवों (तत्त्वों) में अग्नि को व मनुष्यों में (चेतन तत्व समुच्चयों में ) ब्राह्मण को सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है| तथाहि (कलिपूर्व प्रथम शताब्दी) वैदिक काल में सारी विश्ववसुधा में (युरेशिया में) बसने वाले मनुष्य अपने नियत राष्ट्र (अभिजन) गुण-कर्म-स्वभाव नियत कर्म (सामाजिक दायित्व) धर्म का पालन करते हुए विश्वराट् इन्द्र के संरक्षण में ब्रह्मणस्पति बृहस्पति के पौरोहित्य (पारमेष्ठय) में राष्ट्रीय आचार्यों के प्रादेशिक गुरुओं के व जानपद उपाध्यायों के व स्थानीय पुरोहितों के क्रमशः आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक, आधियाज्ञिक (व्यावहारिक) आदर्शपूर्ण मार्गदर्शन में तथा सम्राट महाराज, व राजाओं के कुशल नैतिक प्रशासन में शांतिपूर्वक एक दूसरे के अस्तित्व की भावना से अपने जीवन क्रमों को स्वस्थ, सुन्दर व स्वच्छ रखते हुए व्यतीत करते थे व सर्वाधार पृथ्वी की प्राकृतिक, लौकिक अवस्थाओं के अनुकूल अपने को व्यवस्थित कर अपने भविष्य को सुरक्षित करने में सक्षम होते थे जो आज वर्णाश्रम व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध है
9. दिग् देश काल की विचित्रतावश व "अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति" के अनुसार श्रीकृष्ण-निर्वाण (कलि प्रथम शताब्दी विक्रम पूर्व 2143 वर्ष पूर्व) के बाद आये विप्लव में यह विश्व व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई फलस्वरूप हिमाद्री (हिमालय| में होने वाली वैश्विक ब्रह्मसभा भी प्रभावित होती रही| जिससे भारतवर्ष ही इसका सदस्य बना रहा अन्य राष्ट्र वैदिक ज्ञानाभाव व सम्पर्क के अभाव में इस सभा से बहिष्कृत होते गये| फलतः सम्राट् शेषकृष्ण के साम्राज्य में नैमिषारण्य में एक हजार साल के ज्ञान यज्ञ का आयोजन ब्रह्मसभा के तत्वावधान में हुआ जिसमें भारतीय वैदिक साहित्य का लिपिबद्ध किया जाना प्रसिद्ध है (वि.पूर्व 1899)| श्रीगुरु (विष्णु)उपदिष्ट वैदिक ज्ञान विज्ञानप्रधान, ब्रह्मसभा के विश्वस्तर से उन्मूलन वश यह सभा भारतवर्ष में गुरु-शिष्य परम्परा से चलती रही व अन्य विश्व समाज अपने वैदिक अज्ञानतावश भारतीयता से स्वयं बहिष्कृत होता रहा फलतः धर्म, ज्ञान, वैराग्य व ऐश्वर्य के लिये विश्व प्रसिद्ध भारतवर्ष अधर्म, अज्ञान, राग और अनैश्वर्य से पीड़ित अन्य विश्व राष्ट्रों का शत्रुतुल्य बनता गया| विश्व भाषा संस्कृत को नहीं समझना इस शास्त्रव भाव में घी का काम करता रहा| परिणामस्वरूप नये लौकिक-भाषा-भाषी धर्म (सम्प्रदायों) का जन्म इस धरातल पर होता रहा| व ये "एकं सदविप्राः बहुधा वदन्ति" के भाव को भूल अपनी शिष्य परम्परा को बढ़ाने में व अपने-अपने मतों (सम्प्रदायों) को श्रेष्ठ प्रतिपादित करने में अपनी वैश्विक राष्ट्रीय (पारमेष्ठ्य) भूमिका भूलते गये| परिणामस्वरूप इस घनघोर अज्ञानान्धकार में "नेह मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्" प्रसिद्धि वाला मानुष/मनुष्य अपने से श्रेष्ठतम ईश्वर को व अपने सहयोगी श्रेष्ठ अन्य मनुष्येतर योनियों को ही नहीं अपनों को ही अपना शत्रु मानने लगा व अपने-अपने राष्ट्रों का निर्माण कर अपनी-अपनी राज्य सत्ता बढ़ाने में दीवाना होता गया| यह दीवानगी आज हर परिवार में उपभोक्ता संस्कृति के रूप में पारम्परिक आधुनिकता को अपदस्थ कर उत्तर-आधुनिकता के रूप में भूमन्डलीकरण के नाम से भू-पृथ्वी की प्राकृतिक अवस्था को नष्ट करती हुई मण्डल जमाकर बढ़ रही है जिसका विरोध विश्व (84 लाख योनियों) की रक्षार्थ पूर्व में चाणक्य ने राष्ट्रवाद को व्यवस्थित कर (वि.पू. चतुर्थ शताब्दी) आचार्य वशिष्ठ ने (वि.पू. तृतीय शताब्दी) नविन वंशवाद की व्यवस्था कर,आचार्य शंकर ने (वि.पू. द्वितीय शताब्दी) राष्ट्र की सीमाओं को आरक्षित कर तथा महाराजा भर्तुहरी ने (वि.पू.प्रथम शताब्दी)नैतिक दायित्व निभाकर एवं अन्य वर्णाश्रम प्रधान सनातनी आचार्यों, गुरुओं, राजाओं-महाराजाओं ने वि.सं. 2000 तक राष्ट्रसेवा कर किया व स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व महात्मा गांधी द्वारा 'हिन्दू-स्वराज' के लिए गृहस्थाश्रम त्यागकर, किया जाना भी प्रसिद्ध है| यह अधुरा स्वराज आज 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' बन सिद्ध हो गया है| इस अधूरे कार्य को पूरा कर सभी स्वतन्त्रता सेनानियों को सच्ची श्रद्धांजलि देना राष्ट्रीय कर्तव्य है जो ब्राह्मणों के योग्य नेतृत्व से ही पूरा हो सकेगा| आरक्षण की मांग व्यावहारिक नहीं है ब्राह्मणों को प्रकृति ने ही अधिकार दिया है नेतृत्व करने का, इसे ब्राह्मणों को निभाना चाहिए|
सर्वथा निर्मूल कोई प्रसिद्धि नहीं होती है, के अनुसार उक्त आक्षेपों एवं इन प्रसिद्धियों को सम्मान देते हुए हम यह समीचीन कल्पना कर सकते हैं कि-
श्रीलाड उपाधि विभूषित कश्यपनन्दन सत्य ऋषि, वि.पू.2100 के आसपास सरयूतीर बसे अपने अभिजन (निवास-स्थान) साकेत प्रान्त से ब्रह्मसभा द्वारा आयोज्य ज्ञानसत्र में सम्मिलित होने तथा वहां के तीर्थ निमिष में रहकर तप करने की भावना से गये वहां (ज्ञानसत्र के प्रारम्भ होने से पूर्व) जिन ब्राह्मणों के अभिजन सरस्व्स्ती किनारे बसे आश्रमों में थे वे ब्राह्मण भी अपने अभिजनों के नष्ट होने के कारण अपनी लोकयात्रा व लोकानुग्रही वृत्ति के संरक्षण के निर्वहन हेतु निवेदन करने व कुछ इस प्रकार ज्ञान यज्ञ में लगे रहने से सुरित्या व्यतीत होता रहेगा इस आशा से आमिल्य अटन्तः आये हुए थे इन्होंने भी इस राष्ट्रीय ज्ञान सत्र में अपने को सौंपे गये दायित्व का निर्वाह निष्ठापूर्वक किया| व वि.पू.1100 के आसपास ज्ञान सत्र के समापन समारोह में अपना निवेदन ब्रह्मसभा में प्रस्तुत किया फलस्वरूप कृपालु सत्य ने अपना तपःपूत संरक्षण इन्हें अपने मानसपुत्र बनाकर दिया व इनके साथ ये अपने अभिजन साकेत प्रान्त लौट आये किन्तु अन्य सरयूपारिण ब्राह्मणों में इनके मानसपुत्र सारस्वतों के प्रति बढ़ते स्नेह से द्वेषभाव की अनुभूति की| फलतः ये पुनः वि.पू.800 में अपने मानस पुत्रों के साथ तीर्थाटन हेतु निकल पड़े व नैमिष में मगध प्रान्त में रहने लगे| जब यहां राजमद से उद्दण्ड धननन्दन का निकन्दन चाणक्य-विष्णुगुप्त द्वारा कूटनीति से किया जाना सुन धर्मभीरु इस जाति के मूल पुरुष वि.पू. 390 के आसपास श्रीलाडजी के नेतृत्व में प्रतीची सरस्वती के तीर बसे सिद्ध क्षेत्र बिन्दुसर पर आये तथा यहां के अर्बुदारण्य के वातावरण से संतुष्ट हो नवीन तपस्थली की स्थापना कर पूर्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ की महिमा बढ़ाते हुए चिरकाल तक रहने का मानस बनाया| फलतः यह स्थान सिद्धपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा वहां के राज परिवार ने भी इसके पास एक नया नगर बसाया जिसे सिद्धपुर पाटण कहा जाता रहा है| यहां अन्तिम श्रीलाडजी ने निर्वाण की प्राप्ति की व ज्ञानवृद्ध के अभाव में श्रीलाड उपाधि समाप्त हो गई| फलस्वरूप इनका स्मारक वहां आज भी श्रद्धा का केंद्र बना श्रीलाडजी का चबूतरा के रूप में प्रसिद्ध है| यहां से उम्रेट आदि लाट प्रान्त के स्थानों पर फलते-फूलते रहे| वहां पर भी इतिहास अपने आप को दोहराता है, के अनुसार वि.सं.1017 (ई.सन 960) में सोलंकिवंशीय (वशिष्ठ प्रतिष्ठित अग्निवंशीय) राजपुत्र मूलराज ने अपने मामा सामन्तसिंह को कूटनीति से मारकर सोलह वर्ष की आयु में गुजरात राज्य को अपने हस्तगत कर लिया| इस अनैतिक कृत्य से सन्त्रस्त धर्मभीरु यह ब्राह्मण जाति (पूज्य गिरधारीलाल शास्त्री के मत से 13 गौत्र के 18 या 19 कुटुम्ब) गुजरात को त्याग मेवाड़ में वि.पू.1050 में आम्बावती का निर्माण कर रहने लगी तथा अपना अर्बुदारण्यगत वशिष्ठाश्रम अर्बुदाशक्तिपीठ को स्वीकार करती रही एवं यहीं नविन मेवाड़ क्षेत्र में कलिपूर्व प्रतिष्ठित चारभुजा नाथ को वैष्णव पीठ के रूप में व एकलिंगनाथ को माहेश्वर हरिहर-पाशुपतमतानुसार शैव पीठ मानती रही व अपनी पारम्परिक सिद्धियों को संजोती रही अपने तप से नवीन सिद्धियों को प्राप्त करती रही|
श्री शंकराचार्य के परिभ्रमण के समय श्रीलाड औदिच्य आमेटा जाति गुजरात में बसी थी अतः इसको पंचद्राविड में माना जाना युक्तिसंगत है| औदिच्य शब्द इनके पूर्व अभिजन का द्योतक मात्र है न कि तात्कालिक अभिजन का| वि.सं.1151 में जब सिद्धराज जयसिंह ने गुजरात में कर्णावती नगरी की वास्तुशान्ति एवं रुद्रमहालय के जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा के प्रसंग में कुछ संवर्द्धित ब्राह्मणों ने अम्बावती से ससम्मान गुजरात जाने को प्रस्थान किया जो वहां सम्मान पाकर रहने लगे|
वि.सं.1255 में जब अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात पर हमला कर राजधानी छीन ली तब इस ब्राह्मण जाति समूह के कुछ जन काठियावाड पहुंचे होंगे या मुसलमानों से भ्रष्ट हो धर्मान्तरण हो गये होंगे| बचे जाति बन्धु पुनः राजवंशों के साथ मेवाड़ में मोकल से पूर्ववर्ती राणा लक्ष्मणसिंह के शरण में वि.सं.1300 के आसपास आते हैं और 1500 तक विधर्मियों से आतंकित होते रहे| तथा वि.सं. 1800 के आसपास अम्बावती नगरी आसन्न नष्ट हो आमेट के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी एवं यह श्रीलाड औदिच्य आमेटा जाति अम्बावती से विकम की 13 वीं शताब्दी से 15 वीं शताब्दी तक वृत्ति हेतु परिग्रह को स्वीकार कर अपने तपःप्रधान जीवन को त्याग चुकी थी| व 1500 से अद्यावधि वृत्ति के लिये अन्यत्र बसती उजड़ती रही है तथा अपने आमेटापन की रक्षा किये हुए सम्मान से जी रही है| यह कहना समीचीन होगा| अब विवादग्रस्त विषय दो को देखते हैं-
(क) आमेटों में चान्द्रायण और चंदात्रेय ये दोनों पृथक्-पृथक् गौत्र हैं या एक ही गौत्र के दो नाम है?
समाधान बिंदु -1. कडिया के शिलालेख में त्रिलोचन भट्ट की पत्नी तारादेवी के पीहर का गौत्र चंदात्रेय लिखा है|
समाधान बिंदु 2. कडिया के शिलालेख में त्रिलोचन भट्ट की पत्नी तारादेवी के पीहर का गौत्र चंदात्रेय लिखा है|
समाधान बिंदु 3. धर्मशास्त्रों में अत्रि गौत्र का ही उल्लेख है न कि चंद्रात्रेय का किन्तु पौराणिक विवरणानुसार अत्रि के वंश में चन्द्र ने ही गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया तथा उनसे ही वंश चला अतः चन्द्र को ही चंद्रात्रेय कहा जाता रहा है|
समाधान बिंदु 4. वर्त्तमान मन्वन्तर में आपस्तम्ब सूत्र के अनुसार भृगु, अंगिरा, अत्रि, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ और अगस्त्य ये सात ऋषि गोत्र प्रवर्तक माने गये हैं| अंगिरा ऋषि के वंशज भारद्वाज और गौतम को भी पीछे से गोत्र प्रवर्तक मन लिया गया है इनके वंशज अनेक ऋषि गोत्र प्रवर्तक हुए है जिनकी संख्या 59 या 58 गण शास्त्रों में नियत है| जैसा कि इनमें चान्द्रायण शब्द नहीं है|
तथाहि-
गोत्राणां सहस्त्राणी प्रयुतान्यर्बुदान्यपी|
ऊनपञ्चाशदेवैषां प्रवरा ऋषिॅ दर्शनात्||
समाधान बिंदु 5.
चान्द्रायण शब्द व्याकरण शास्त्र के अनुसार चन्द्रस्य अपत्यं पुमान् इस अर्थ में चन्द्र नामक व्यक्ति के पुत्र/वंशज को ही प्रकट करता है न कि गौत्र को| यहां नडादिभ्यः फक् इस सूत्र से फक् प्रत्यय व तत्कार्य होने पर चान्द्रायण शब्द निष्पन्न होता है|
इन पर विचार करते हुए आमेटाओं में चंद्रात्रेय (अत्रि) की प्रमुखता शास्त्रानुरोध से सिद्ध होती है| अतः आमेटाओं में उक्त एक ही गोत्र है तथा चान्द्रायण कोक गोत्र नहीं मन चन्द्र को या चान्द्रायण को प्रवर मानकर व्यवहार चलाना चाहिये जैसे-
1. अंगिरा वंश में उत्पन्न चान्द्रायणों के प्रवर आंगिरस अम्बरीष एवं यौवनाश्व है| उनका आंगिरस गोत्र मानकर चौथा प्रवर चन्द्र का भी प्रवरों में उल्लेख करना चाहिये|
2. एवं जो चान्द्रायण भृगुवंश की आर्ष्टिषेण शाखा में अपनी उत्पत्ति मानते हैं तथा जिनके प्रवर भार्गव, च्यवन, आप्तवान, और्य और जामदग्न्य है| इनका गोत्र वत्स मानकर चन्द्र प्रवर का भी उल्लेख देना चाहिए| जिससे विवाह करने में सुलभता रहेगी व सगोत्रीय एवं सप्रवरीय दुष्ट-विवाह से उक्त गोत्र वाले बच सकेंगे|
(ख) यदि चान्द्रायण गोत्र है ही नहीं तो यह चान्द्रायण शब्द आया कहां से?
समाधान बिंदु – 1.
चन्द्र मूल पुरुष से उत्पन्न पुत्रादि को युवापत्य अथवा श्रेष्ठ अपत्य को चान्द्रायण कहा जाता रहा है| यह शब्द चन्द्र शब्द से तद्धित नडादिभ्य फक् सूत्र से निष्पन्न होता है| एवं तीनों आंगिरस, भार्गव एवं आत्रेय चंद्रों के वंशधरों को चान्द्रायण कहा जाता रहा है| अतः चान्द्रायण को गोत्र नहीं मान उक्त मूल पुरुष की सन्तान मान मूल गोत्र का उल्लेख करने से श्रीलाड ऋषि की 13 पुतलों वाली स्मृति शेष कथा की प्रसिद्धि का मण्डन हो सकता है| जैसा कि पूज्य गिरिधारी शास्त्री जी ने माना हँ एवं तीनों चान्द्रायाणों के कुलाचार में भेद होना भी स्वाभाविक है तथा पूर्वापरवश कर्णपुर के चंद्रात्रेयों में व मारवाड़ के चंद्रत्रेयों के कुलाचार भी भिन्न हो सकते है| अब विवादग्रस्त विषय – 3 प्रस्तुत है-
वत्सगोत्र के समान मेवाड़ में वशिष्ठ गोत्र भी अपने प्रवर पांच बताते हैं तो क्या इनके प्रवरों में भूल है या गोत्र में?
समाधान बिंदु 1. वत्स गोत्र के पांच प्रवर- भार्गव, च्यवन,आप्नवान्, और्य, जामदग्न्य है|
समाधान बिंदु 2. वशिष्ठ गोत्र के वाशिष्ठ, इन्द्रप्रभद,आभरद्वसु एवं दो प्रवर वशिष्ठ जी को श्रीरामचन्द्र जी ने पीछे से दो प्रवर और बक्शे हैं|
समाधान बिंदु 3. आमेटों के राव जी हीरालाल जी का कहना है कि 3 प्रवर तो पहले थे परन्तु श्रीरामचन्द्र जी ने पीछे से दो प्रवर और बक्शे हैं|
समाधान बिंदु 4. निवेदक द्वारा भी यह तथ्य जब वह विद्यार्थी अवस्था में डंकपुर (डाकोर) जिला खेडा गुजरात में संस्कृत पाठशाला में पढ़ता था तब प्रधानाचार्य श्री शुकदेव पाठक निवासी तलवाडा, राजस्थान के सान्निद्य में एक सरयूपारीण वशिष्ठ गोत्रीय प्रज्ञा चक्षु महात्मा से मिलाने का अवसर मिला उसमें यही प्रसंग उठा था तो आप श्री ने भी उक्त रावजी वाला कथन प्रस्तुत किया था किन्तु नाम वे भी नहीं बता सके थे|
एवं जिनके उक्त गोत्रानुकूल जो प्रवर हो वे अपना-अपना गोत्र मान सकते हैं| यहां समानता का विवाद नहीं होना चाहिये| जिन वशिष्ठों को यह प्रसंग याद नहीं वे उक्त तीन गोत्र ही मानते रहे होंगे| वैसे दो प्रवर कौनसे हैं इस पर सभी मौन हैं| अतः 3 या 5 का विवाद श्रद्धा में व तर्क में भी कहीं नहीं टिक सकता|
प्रसंगवश जिन वत्स गोत्रीय पूर्वजों ने वशिष्ठ गोत्रीय दौहित्रों को, या वशिष्ठगोत्रियों ने वत्सगोत्रिय दौहित्रों को गोद लिया हो उनके गोत्र में व प्रवरों में संख्यात्मक एकता सम्भव हो सकती है| प्रवर नाम भूल जाने से सांकर्य दोष सम्भव हो सकता है| अतः यह समस्या इन गोत्रों को आपस में मिल बैठकर ही समाधेय हो सकती है|
बाकी वत्स शब्द मौखिक परम्परावश विद्वान् ब्राह्मणों की सन्तान परम्परा में बिगड़ कर वतस् बटस बसट और वशिष्ठ आदि कई शकलों में बदल नहीं सकता| हां वशिष्ठ शब्द वसिठ, वसीठ या वसट हो सकता है| सरलतया उच्चार्य वत्स शब्द वतस तो हो सकता है किन्तु कठिनोच्चार्य वशिष्ठ नहीं हो सकता| इस कल्पना में रावों की बोड़ी लिपि अपना रंग दिखा सकती है तो भी इतना ही की वशिष्ठ का वसट और वत्स का वतस या वसत हो सकता है अतः जाति बन्धुओं को अपने सही गोत्र एवं प्रवरों की जानकारी कर इस विवाद को स्वयं ख़त्म कर भूलों को स्वयं स्वीकार कर स्वयं प्रायश्चित कर लेना चाहिये, क्योंकि संशयात्मा विनश्यति|
ऐसे संशयात्मा वशिष्ठों एवं वत्सों को आपसी विवाद नहीं करना ही श्रेयस्कर है व सत्यस्थिति के बहाल होने पर जैसी व्यवस्था धर्मशास्त्रों में है वैसा करना चाहिये| वैसे पूज्य गिरिधारीलाल शास्त्री जी ने इस विवाद को समूल निरस्त कर दिया है व प्रवरों की सही जानकारी के अभाव में उक्त निर्णय को शिरोधार्य करना ही परम श्रेयस्कर है| अस्तु |
आगे जो प्रतीची सरस्वती नदी के बारे में उल्लेख किया गया है उसके बारे में अभी-अभी हमारी केन्द्र सरकार ने भी माना है की पूर्व काल में आज जहां थार का रण है वहां पहले सरस्वती नदी थी जो कारणवश भूमिगत हुई| जिसकी चौड़ाई आठ किलोमीटर मानी जाती है| इसका उल्लेख 23 जनवरी 2018 की राजस्थान पत्रिका में किया गया है| सरस्वती नदी, हिमालय से निकल कर कच्छ के रण तक बहती थी|
(रामचन्द्र आमेटा)
व्याकरणाचार्यः शिक्षा शास्त्री
'गायत्री-सदन' गोविन्द नगर रोड़ नं. डी
तेलियों का तालाब, नाथद्वारा (राजस्थान)
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