सर्वप्रथम ब्राह्मणों में दो विभाग हुए और वे दिशाओं के नामों से पुकारे जाने लगे |सरस्वती नदी के पश्चिम –उत्तर में बसनेवाले उदिच्य और दक्षिण-पूर्व में बसनेवाले प्राच्य कहलाये | यह जाति भेद नहीं था | प्रान्त के नाम से परिचय दिया जाता था| धीरे-धीरे देशों के, प्रान्तों के व गांवों के नामसे कान्यकुब्ज, सरयू पारीय, द्रविड़, तैलंग, पालीवाल, श्रीमाली आदि अनेक नामसे परिचय देने लगे | तत्कालीन शंकराचार्य ने देशों के नाम से दो भेद किये, जो विन्ध्याचल के दक्षिण में रहने वाले द्रविड़ और उत्तर में रहने वाले गौड़ कहलाये| कालांतर में भेद होनेके कारण पंच द्रविड़ और पंच गौड़ हुए | वास्तव में तो ब्राह्मणों के वेद, शाखा, गोत्र, प्रवर, उपनाम, आचार, विचार, व्यवहार आदि देखते हुए स्पष्ट कहा जा सकता है कि किसी समय सभी ब्राह्मण एक थे | 1. सरस्वती नदीके समीप रहनेवाले सारस्वत, 2.कनौज के समीप रहने वाले कान्यकुब्ज | 3. गौड़ देश ( बंगाल देश ) के आस-पास रहने वाले गौड़ | 4. जगन्नाथ पुरी के समीप रहने वाले उत्कल | 5. मिथिला के समीप रहने वाले मैथिल | ये विन्ध्याचल के उत्तर में निवास करने वाले पंच गौड़ |
1. कर्णाटक, 2. तैलंग, 3. डेविड, 4. महाराष्ट्र और 5. गुर्जर
ये विन्ध्याचल के दक्षिण में रहनेवाले पंच द्रविड़ हाकी |
उपरोक्त पंच द्रविड़ों के अंतर्गत गुर्जरों में औदिच्य नाम की जाति है जो सिद्धपुर पाटण ( गुजरात )के मूलराजा के समय प्रकाश में आई |
चौलुक्य वंशीय राजा मूलराजा ने विशाल साम्राज्य बनाने में अपने जीवनकाल के दौरान युद्धों में अपने सम्बन्धियों / शत्रुओं आदि का संहार कर राज्य सुख भोग किया सो मेरी शुद्धि कैसे होगी ? ऐसा निश्चय करके अपने ऋषि गुरु से प्रायश्चित करने के लिए मुक्तिका मार्ग कैसे संभव है, यह पूछा | गुरु ने उत्तम ब्राह्मणों की महिमा कहते हुए कहा है कि पृथ्वी पर जितने तीर्थ हैं वे सब तीर्थ समुन्द्र में मिलते हैं, समुन्द्र में जितने तीर्थ हैं वे सब तीर्थ ब्राह्मण के दक्षिण पद में हैं |( पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि सागरे | सागरे सर्व तीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ||43|| ' ब्राह्मनोत्पति मार्तण्ड ' ),शरीर से ब्राह्मण नहीं होता है,पहिले ब्राह्मण जातिमें जन्म ले के वेदोक्त संस्कार युक्त हो के स्वकर्म करता होवे शमदमादीगुणयुक्त काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्य तृष्णा ईर्ष्या हिंसा निर्दयतादि रहित हो के जो वेद वेदार्थ जान के उप्निशत्प्रतीपाद्य ब्रह्म को जाने नित्य उसका मनन करे सो ब्रह्मज्ञ वो ब्राह्मण | प्राचीन काल में गुजरात देश में सरस्वती नदी के किनारे पर पाटण करके बड़ा नगर जो विक्रम संवत 802 में चावड़ा वनराजा ने बसाया | बादमें उसके वंश में चामुण्डा राजा बना | संवत 1053 के साल ( इसका प्रमाण जैनमत के प्रबंध चिंतामणि में इसका उल्लेख है )मूल नक्षत्र में जन्म होनेसे राजाका नाम मूलराजा रखा | मूलराजा ने अपने राज्य के विस्तार के लिए युद्धों में कई मानव हत्याएं की | उसके प्रायश्चित के लिए ऋषि गुरु के आदेशानुसार राजा स्त्रीसहवर्तमान वेदिका ले अपने हाथमें कुश जल लेकर कृतिका नक्षत्र युक्त कार्तिक पूर्णिमा के दिन इक्कीस ब्राह्मणों को सब पदार्थ सहित सिद्धपुर दान किया | तदनंतर सिंहोर ग्राम जो काठियावाद में जय, सिद्धपुर के आस-पासके गाँव दान किये, दान लिए गांवों के अनुसार संप्रदाय बने जैसे सिद्धपुर संप्रदाय व सिंहोर संप्रदाय |( सहस्त्र यानी हजार से ऊपर ब्राह्मण इस प्रकार से प्रयाग के 105, च्यवन ऋषि के आश्रम से 100, सरयू नदीके तीर से 100, कान्यकुब्ज देश से 200, काशी से 100, कुरुक्षेत्र के आस-पास से 79, गंगाद्वार से 100, नेमिषारण्य से 100 और कुरुक्षेत्र से 132 ऐसे सहस्त्र यानी 1016 व औदिच्य नाम से ब्राह्मण समाज था ) संभव है कि इसी औदिच्य के अंतर्गत सभी ब्राह्मण समाज आते हों, उसमें से आमेटा जाति भी एक हो, क्योंकि आमेटा का गुजरात सिद्धपुर, पाटण, उमरेठ से निकले भारतवर्ष में आमेटा का अस्तित्व है और गुजरात देश में सरस्वती नदी के किनारे पर पाटण के मूलराजा ने ब्राह्मणों को जागीरियां यानी गाँव दान में दिये | सहस्त्र औदिच्य ब्राह्मणों को, सिंहोर जो काठियावाड में है दान किया तथा विधिपूर्वक पूजा करके ब्राह्मणों को वि.सं.1043 से 1053 ( सन 986-96 ) तक ब्राह्मणों को दान करते रहे | वसंत पंचमी को शिवमंदिर की प्रतिष्ठा करा व गाँव दान में दिये जिससे वो जीविकोपार्जन कर सके | जिनका उल्लेख पुराने ताम्रपत्र व राव, भाटों की कोपियों से व इसी खोज में मैंने (शम्भूलाल आमेटा) भारतवर्ष के कई गांवों का भ्रमण कर राव-भाटों से व ताम्र-पत्र द्वारा आमेटा नाम कितना पुराना है, इसकी खोज की | वैसे तो 1043 एक हजार तरियालिस वर्ष पुराने ताम्रपत्र आमेटा परिवारों के पास हो सकते हैं मगर भ्रमण के दौरान खोज करने पर तीन ताम्रपत्र जो वि.सं. 1137, 1139, 1142 की जानकारी मिली | इनमें से एक ताम्रपत्र के अनुसार संवत 1142 यानी 930 वर्ष पुराना मिला | उस समय ताम्रपत्र प्राप्त करने वाले की उम्र भी 60 या 70 वर्ष की होगी | यानी एक हजार वर्ष पहले से " आमेटा " नाम अस्तित्व में था और है |यह ताम्रपत्र सहदेवजी पिता बाबुलालजी तिवारी ( चन्द्रात्री-आमेटा ) ग्राम मोहरा, जिला-पाली ( राज. ), हाल मुकाम- लाम्बा, जिला जोधपुर के पास मिला था | धीरे-धीरे देशों के, प्रान्तों के व गांवों के नामसे कान्यकुब्ज, सरयू पारीय, द्रविड़, तैलंग, पालीवाल, श्रीमाली आदि अनेक नामसे परिचय देने लगे | तत्कालीन शंकराचार्य ने देशों के नामसे दो भेद किये, जो विन्ध्याचल के दक्षिण में रहने वाले द्रविड़ और उत्तर में रहने वाले गौढ.